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दूरियों में क़राबतों का मज़ा - मोहसिन असरार कविता - Darsaal

दूरियों में क़राबतों का मज़ा

दूरियों में क़राबतों का मज़ा

लीजे लीजे मोहब्बतों का मज़ा

कुछ मज़ा बारिशों की शोरिश का

कुछ टपकती हुई छतों का मज़ा

हो गई ना तबाह ख़ुद-दारी

ले लिया ना रिआयतों का मज़ा

इक मुहाजिर ही जान सकता है

कैसा होता है हिजरतों का मज़ा

धूप जा-ए-क़रार सायों की

हर बगूला मसाफ़तों का मज़ा

भूक और प्यास ज़ात की लज़्ज़त

फ़ाक़ा-मस्ती क़नाअतों का मज़ा

जैसे सज्दे में क़त्ल हो कोई

ऐसा होता है चाहतों का मज़ा

मौत है ज़िंदगी की कमज़ोरी

जाँ-कनी अपनी क़ुव्वतों का मज़ा

इश्क़ होता है तब ही जब 'मोहसिन'

मुंतक़िल हो तबीअतों का मज़ा

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