निगाह-ए-नाज़ का रिश्ता जो दिल के घाव से है
निगाह-ए-नाज़ का रिश्ता जो दिल के घाव से है
ये आब-ओ-रंग-ए-तमन्ना इसी लगाव से है
ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ पिए और अपनी राह लगे
शराब-ख़ाने की रौनक़ ही चल-चलाव से है
वफ़ा तो क्या है बस इक पास-ए-वज़्अ' कह लीजे
और इतनी बात भी मेरे ही रख-रखाव से है
हकीम अपने ही साए की नाप-तोल में ग़र्क़
फ़रोग़-ए-फ़िक्र मगर अक़्ल के गिराव से है
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