वा'दा गर रोज़ किए जाइएगा

वा'दा गर रोज़ किए जाइएगा

रोज़ समझूँगा कि आज आइएगा

जान का ग़म नहीं ग़म ये है कि आप

क़त्ल कर के मुझे पछ्ताइएगा

मैं भी हूँ हज़रत-ए-नासेह दाना

कुछ समझ कर मुझे समझाइएगा

लाग़र इतना हूँ कि हूँ घर में मगर

मेरे घर में न मुझे पाइएगा

तुम नहीं क़ौल-ओ-क़सम के सच्चे

झूट कहता हूँ क़सम खाइएगा

दर पे रहने की इजाज़त दे कर

कहते हैं पाँव न फैलाइएगा

क्या है जो कहते हो मुतरिब से तुम आज

कोई 'नाज़िम' की ग़ज़ल गाइएगा

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