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वो कज-कुलह जो कभी संग-बार गुज़रा था - मोहम्मद याक़ूब आसी कविता - Darsaal

वो कज-कुलह जो कभी संग-बार गुज़रा था

वो कज-कुलह जो कभी संग-बार गुज़रा था

कल इस गली से वही सोगवार गुज़रा था

कोई चराग़ जला था न कोई दर वा था

सुना है रात गए शहरयार गुज़रा था

गुहर जब आँख से टपका ज़मीं में जज़्ब हुआ

वो एक लम्हा बड़ा बा-वक़ार गुज़रा था

जो तेरे शहर को गुलगूँ बहार बख़्श गया

क़दम क़दम ब-सर-ए-नोक-ए-ख़ार गुज़रा था

वो जिस के चेहरे पे लिपटा हुआ तबस्सुम था

छुपाए हसरतें दिल में हज़ार गुज़रा था

जिसे मैं अपनी सदा का जवाब समझा था

वो इक फ़क़ीर था कर के पुकार गुज़रा था

तिरे बग़ैर बड़े बे-क़रार हैं 'आसी'

तिरा वजूद जिन्हें नागवार गुज़रा था

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