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अपने दुश्मन हज़ार निकले हैं - मोहम्मद याक़ूब आसी कविता - Darsaal

अपने दुश्मन हज़ार निकले हैं

अपने दुश्मन हज़ार निकले हैं

हाँ मगर बा-वक़ार निकले हैं

हम भी क्या बादा-ख़्वार हो जाएँ

शैख़ तो बादा-ख़्वार निकले हैं

घर का रस्ता न मिल सका हम को

घर से जो एक बार निकले हैं

चाँद बिन चाँदनी कहाँ होगी

गो सितारे हज़ार निकले हैं

ख़ून-ए-दिल दे के जिन को सींचा था

नख़्ल सब ख़ार-दार निकले हैं

बंद कूचे की दूसरी जानिब

रास्ते बे-शुमार निकले हैं

बा'द इक उम्र की ख़मोशी के

मिसरे सब ज़ोर-दार निकले हैं

हम तो समझे थे मस्त हैं 'आसी'

आप भी होशियार निकले हैं

कोई कहता था ख़ुश हैं 'आसी-जी'

वो मगर दिल-फ़िगार निकले हैं

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