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रिंद बेताब हैं घनघोर घटा छाई है - मोहम्मद विलायतुल्लाह कविता - Darsaal

रिंद बेताब हैं घनघोर घटा छाई है

रिंद बेताब हैं घनघोर घटा छाई है

मय-कदे गूँज रहे हैं वो बहार आई है

बज़्म-ए-अग़्यार में उस ने मुझे दरयाफ़्त किया

बा'द मुद्दत के उसे याद मिरी आई है

कट ही जाती हैं किसी तरह हमारी रातें

ग़म सलामत रहे वो मोनिस-ए-तन्हाई है

क़त्ल करने को मिरे आते हैं वो तेग़-ब-दस्त

मैं समझता हूँ मिरे हक़ में मसीहाई है

उन को ये ज़िद है न देखेंगे कभी मेरी तरफ़

मैं ने भी दर से न उठने की क़सम खाई है

है ये रिंदों के तआक़ुब में कोई राज़ अमीक़

वर्ना औरों से भी वाइ'ज़ की शनासाई है

पूछने आए हैं वो हाल मिरा ऐ 'हाफ़िज़'

ज़ोफ़ से सल्ब यहाँ ताक़त-ए-गोयाई है

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