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राज़ अपना जो कह दिया तू ने - मोहम्मद विलायतुल्लाह कविता - Darsaal

राज़ अपना जो कह दिया तू ने

राज़ अपना जो कह दिया तू ने

दिल-ए-नादाँ ये क्या किया तू ने

दर्द-ए-दिल की न की दवा तू ने

न सुनी मेरी इल्तिजा तू ने

साफ़ है किस क़दर ये दाद-ए-दस्त

दिल दिया मैं ने और लिया तू ने

नज़्र मैं ने किया जो अपना दिल

इस के बदले में क्या दिया तू ने

हो एवज़ या न हो करम है तिरा

दिल-ए-मुज़्तर तो ले लिया तू ने

राह पर मुड़ के क्यूँ मुझे देखा

की मोहब्बत की इब्तिदा तू ने

वा'दा कर के जो ले लिया वापस

ऐ सितमगर ये क्यूँ किया तू ने

नहीं पहलू में जब क़याम-ओ-क़रार

ऐ ख़ुदा क्यूँ ये दिल दिया तू ने

दिल लगाया था एक से 'हाफ़िज़'

ऐ ख़ुदा क्यूँ किया जुदा तू ने

मुझ को पैदा किया ख़ुदा तू ने

और सब कुछ अता किया तू ने

तेरी रहमत का कुछ हिसाब नहीं

दी है हर दर्द की दवा तू ने

कर के तौबा सँभल गया आसी

फिर भी उस को बचा लिया तू ने

दी हैं दुनिया में ने'मतें क्या क्या

अपने बंदों को ऐ ख़ुदा तू ने

पहले बतला दिया गुनाह है क्या

अफ़्व की उस की फिर ख़ता तू ने

दूर फेंका न बा'द-ए-मुर्दन भी

पास अपने बुला लिया तू ने

रहम तेरा ग़ज़ब पे ग़ालिब है

क्यूँ बनाई सज़ा जज़ा तू ने

नाज़ उस ने उठाए ऐ 'हाफ़िज़'

रह के दुनिया में क्या किया तू ने

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