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दिल में मेरे हर घड़ी दरिया-ए-ग़म लबरेज़ है - मोहम्मद विलायतुल्लाह कविता - Darsaal

दिल में मेरे हर घड़ी दरिया-ए-ग़म लबरेज़ है

दिल में मेरे हर घड़ी दरिया-ए-ग़म लबरेज़ है

बात जो मुँह से निकलती है वो दर्द-आमेज़ है

ज़ब्त करता हूँ तो बढ़ता है मिरा सोज़-ए-दरूँ

अश्क से भी अपने डरता हूँ कि तूफ़ाँ-ख़ेज़ है

पहले इन आँखों से सैल-ए-अश्क होता था रवाँ

अब वुफ़ूर-ए-ग़म से मेरी चश्म-ए-तर ख़ूँ-रेज़ है

आरज़ू तक हो गई दिल के लिए बार-ए-गराँ

ना-तवानी के सबब अरमाँ भी हसरत-ख़ेज़ है

है अबस सामान-ए-फ़रहत ग़म-ज़दा दिल के लिए

मेरे लब को ख़ुद तबस्सुम से बड़ा परहेज़ है

दिन गए तफ़रीह के जब से हुआ दिल ग़म-कदा

क्या ग़रज़ हम को अगर दुनिया तरब-अंगेज़ है

इस ज़मीं पर कर रहा है तय मसाफ़त हर-नफ़स

वो मुबारक है क़दम जिस का सफ़र में तेज़ है

क़ल्ब-ए-'हाफ़िज़' ता-दम-ए-आख़िर न पाएगा सुकूँ

जुमला-सामान-ए-तरब-अंगेज़ वहशत-ख़ेज़ है

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