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बात तुम्हारी आज तक कोई हुई है कब ग़लत - मोहम्मद विलायतुल्लाह कविता - Darsaal

बात तुम्हारी आज तक कोई हुई है कब ग़लत

बात तुम्हारी आज तक कोई हुई है कब ग़लत

तुम जो कहो वो सब बजा हम जो कहें वो सब ग़लत

आप का वा'दा कल भी था आज है वा'दा दूसरा

क़ौल-ओ-क़रार आप का जब न ग़लत न अब ग़लत

दिल में थी मौजज़न ख़ुशी शौक़ फ़ुज़ूँ था हर घड़ी

दिन में जो कुछ उमीद थी हो गई वक़्त-ए-शब ग़लत

क्यूँ न गया पयाम्बर ग़ैर के पास भूल कर

ऐसी सुनाई आ के बात हो गई सब तरब ग़लत

ग़ैर कहे वो सब दुरुस्त आप कहें वो सब बजा

बात हमारी हक़ भी हो होती है बे-सबब ग़लत

ग़ैर का दा'वा-ए-वफ़ा किज़्ब की इंतिहा नहीं

आ के सुनाई दास्ताँ एक सिरे से सब ग़लत

'हाफ़िज़'-ए-हक़-पसंद की बात की क़द्र थी कभी

हर्फ़-ए-ग़लत की तरह क्यूँ हो गया ख़ुद वो अब ग़लत

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