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आश्ना-ए-दर्द तू ऐ ख़ूगर-ए-इशरत नहीं - मोहम्मद विलायतुल्लाह कविता - Darsaal

आश्ना-ए-दर्द तू ऐ ख़ूगर-ए-इशरत नहीं

आश्ना-ए-दर्द तू ऐ ख़ूगर-ए-इशरत नहीं

लज़्ज़त-ए-ग़म के बराबर दूसरी लज़्ज़त नहीं

क़द्र-ओ-क़ीमत दिल की है जब तक है इस में मौज-ए-दर्द

जिस में रंग-ओ-बू उस गुल की कुछ वक़अत नहीं

नाला-ए-शब-गीर हो पुर-जोश हो तूफ़ान-ए-अश्क

अब्र-ए-बाराँ की भी इस के सामने क़ीमत नहीं

लुत्फ़-ए-दर्द-ए-दिल से तो है बे-ख़बर ऐ चारागर

इस जहाँ में इस से बढ़ कर दूसरी ने'मत नहीं

ये जिगर बाक़ी है ग़म की मेहमानी के लिए

दिल सुबुक-ख़ातिर है इस में ख़ून की रंगत नहीं

दिल दिया है जिस को वाइ'ज़ है हमें उस की तलाश

हूर-ए-जन्नत से शनासाई नहीं उल्फ़त नहीं

दौलत-ए-दुनिया-ए-दूँ सरचश्मा-ए-अफ़्कार है

बादशाही को फ़क़ीरी से कोई निस्बत नहीं

ज़ीस्त में मेरी कमी थी इक ग़म-ए-जाँ-काह की

मिल गया क़िस्मत से वो भी अब कोई हसरत नहीं

हो गया अफ़्सोस 'हाफ़िज़' ना-मुराद-ए-आरज़ू

ढूँढता है और कहीं तस्कीन की सूरत नहीं

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