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रह गई वो निगाह-ए-नाज़ क़ल्ब ओ जिगर में बैठ कर - मोहम्मद उस्मान आरिफ़ कविता - Darsaal

रह गई वो निगाह-ए-नाज़ क़ल्ब ओ जिगर में बैठ कर

रह गई वो निगाह-ए-नाज़ क़ल्ब ओ जिगर में बैठ कर

दिल में लतीफ़ सी ख़लिश आँख है आँसुओं से तर

रात की नींद उड़ गई दिन का सुकून लुट गया

तेरी निगाह-ए-नाज़ ने कर दिया दिल पे क्या असर

सुन न सके उसी को वो कह न सका उसी को मैं

ऐश की दास्ताँ में जो हाल था ग़म का मुख़्तसर

शाख़ से गुल जो गिर पड़ा दिल से लगा के रख लिया

दौर-ए-ख़िज़ाँ भी देख लूँ फूल चुने हैं उम्र भर

कोई अगर निहाल है कोई ख़राब-हाल है

ज़र्फ़ के साथ साथ है उन की निगाह का असर

रंग-ए-चमन को देख कर 'आरिफ़'-ए-ख़स्ता-दिल ये क्या

फूलों पे है कभी नज़र काँटों पे है कभी नज़र

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