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इसी सूरत से तस्कीन-ए-दिल-ए-नाशाद करते हैं - मोहम्मद उस्मान आरिफ़ कविता - Darsaal

इसी सूरत से तस्कीन-ए-दिल-ए-नाशाद करते हैं

इसी सूरत से तस्कीन-ए-दिल-ए-नाशाद करते हैं

अभी तक याद आते हो अभी तक याद करते हैं

तबाही पर हमारी शिकवा-ए-सय्याद करते हैं

चमन में हैं कुछ ऐसे भी जो हम को याद करते हैं

मोहब्बत नाम है उस का तअ'ल्लुक़ नाम है उस का

न हम आज़ाद होते हैं न वो आज़ाद करते हैं

वफ़ा का नाम जब उठ जाएगा बेदर्द दुनिया से

वो रोएँगे बहुत हम को जो अब बरबाद करते हैं

ज़माने से निराला है करम सय्याद-ओ-गुलचीं का

जला कर आशियाँ कहते हैं अब आज़ाद करते हैं

क़फ़स ही अब नशेमन है क़फ़स ही सहन-ए-गुलशन है

असीरों से कहो क्यूँ मिन्नत-ए-सय्याद करते हैं

समझ रक्खा है बाज़ीचा उन्हों ने दिल की दुनिया को

कभी आबाद करते हैं कभी बरबाद करते हैं

कभी अपना समझ कर जिन को सीने से लगाया था

अजब आलम है 'आरिफ़' वो हमें बरबाद करते हैं

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