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हिज्र की बे-ताबियाँ थीं हसरतों का जोश था - मोहम्मद उस्मान आरिफ़ कविता - Darsaal

हिज्र की बे-ताबियाँ थीं हसरतों का जोश था

हिज्र की बे-ताबियाँ थीं हसरतों का जोश था

हुस्न का आग़ोश फिर भी हुस्न का आग़ोश था

हम तो जिस महफ़िल में बैठे शग़्ल-ए-नाव-नोश था

ज़िंदगी में मौत भी आएगी किस को होश था

ज़ब्त करते करते आख़िर फूट निकली दिल की बात

हँस पड़ा गुलशन में जो भी ग़ुंचा-ए-ख़ामोश था

एहतिराम-ए-हुस्न कहिए या उसे रोब-ए-जमाल

उन का पर्दे से निकलना था कि मैं बेहोश था

मुझ से पूछो सरगुज़श्त‌‌‌‌-ए-मय-कदा बादा-कशो

था कभी मेरा भी आलम मैं भी बादा-नोश था

लग़्ज़िशें मेरी मुसल्लम इब्तिदा-ए-इश्क़ में

आप को भी कुछ ख़बर थी आप को भी होश था

इश्क़ का ए'जाज़ था ये इश्क़ की तासीर भी

दिल से जो नाला निकलता था सुकून-ए-गोश था

कोई क्या समझा मिरी दीवानगी को क्या ख़बर

आप की नज़रों में था इतना तो मुझ को होश था

आज तस्बीह-ओ-मुसल्ला ले के 'आरिफ़' बन गया

कल जो रूह-ए-मय-कदा था रिंद-ओ-बादा-नोश था

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