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बाक़ी है वही शोख़ी-ए-गुफ़्तार अभी तक - मोहम्मद उस्मान आरिफ़ कविता - Darsaal

बाक़ी है वही शोख़ी-ए-गुफ़्तार अभी तक

बाक़ी है वही शोख़ी-ए-गुफ़्तार अभी तक

दीवाने पहुँचते हैं सर-ए-दार अभी तक

सर पर है बहारों के मिरे ख़ून का सहरा

आलूदा लहू से हैं गुल ओ ख़ार अभी तक

आज़ादी-ए-कामिल के तसव्वुर में है इंसाँ

अपने ही ख़यालों में गिरफ़्तार अभी तक

गाते हैं उख़ुव्वत के तराने तो शब ओ रोज़

बर्बादी-ए-आलम को हैं तय्यार अभी तक

बेगाना बने लाख मोहब्बत से ज़माना

है जिंस-ए-गराँ-माया तिरा प्यार अभी तक

होती है ख़यालों ही में तंज़ीम चमन की

किरदार ही बदले हैं न गुफ़्तार अभी तक

मासूम है मासूम बहुत अम्न की देवी

क़ब्ज़े में लिए ख़ंजर-ए-ख़ूँ-ख़ार अभी तक

'आरिफ़' ये ज़माना तो बदलना ही पड़ेगा

उट्ठो भी है इस की वही रफ़्तार अभी तक

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