ज़ाविए
मुझे तो बे-सुकूँ सा कर गया उस शोख़ का कहना
हक़ीक़त के तराज़ू में कभी तौला है जज़्बों को
मोहब्बत के तक़द्दुस का भरम रक्खा कभी तू ने
कभी बे-साख़्ता लिपटा है महरूम-ए-सबाहत से
कभी हाल-ए-कजी पूछा है मसहूर-ए-क़बाहत से
कभी दश्त-ए-जुनूँ पाटा है जज़्बात-ए-इरादत से
कभी सरसर से तल्ख़ी का सबब पूछा मतानत से
कभी तरजीह दी ख़ाक-ए-चमन पर रेग-ए-सहरा को
गुल-ओ-बुलबुल से हट कर भी कभी देखा है फ़ितरत को
गुल-ओ-बुलबुल बजा लेकिन चमन में ख़ार भी तो है
सबाहत वक़्फ़-ए-गुलशन ही नहीं कोहसार भी तो हैं
कई पोशीदा अज़ फ़िक्र-ओ-नज़र शहकार भी तो हैं
ग़लत हैं नासिया-फ़रसाइयाँ तेरी तलब तेरी
तिरी राहें जुदा हैं अहल-ए-दिल से अहल-ए-हसरत से
तिरा हुस्न-ए-नज़र महदूद है ज़ाती मक़ासिद तक
तिरी ये शपरा-चश्मी ही तुझे बरबाद कर देगी
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