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ज़ाविए - मोहम्मद तन्वीरुज़्ज़मां कविता - Darsaal

ज़ाविए

मुझे तो बे-सुकूँ सा कर गया उस शोख़ का कहना

हक़ीक़त के तराज़ू में कभी तौला है जज़्बों को

मोहब्बत के तक़द्दुस का भरम रक्खा कभी तू ने

कभी बे-साख़्ता लिपटा है महरूम-ए-सबाहत से

कभी हाल-ए-कजी पूछा है मसहूर-ए-क़बाहत से

कभी दश्त-ए-जुनूँ पाटा है जज़्बात-ए-इरादत से

कभी सरसर से तल्ख़ी का सबब पूछा मतानत से

कभी तरजीह दी ख़ाक-ए-चमन पर रेग-ए-सहरा को

गुल-ओ-बुलबुल से हट कर भी कभी देखा है फ़ितरत को

गुल-ओ-बुलबुल बजा लेकिन चमन में ख़ार भी तो है

सबाहत वक़्फ़-ए-गुलशन ही नहीं कोहसार भी तो हैं

कई पोशीदा अज़ फ़िक्र-ओ-नज़र शहकार भी तो हैं

ग़लत हैं नासिया-फ़रसाइयाँ तेरी तलब तेरी

तिरी राहें जुदा हैं अहल-ए-दिल से अहल-ए-हसरत से

तिरा हुस्न-ए-नज़र महदूद है ज़ाती मक़ासिद तक

तिरी ये शपरा-चश्मी ही तुझे बरबाद कर देगी

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