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लख़्त-ए-जिगर - मोहम्मद ताहा खान कविता - Darsaal

लख़्त-ए-जिगर

रात इक टीचर के घर लख़्त-ए-जिगर पैदा हुआ

वाँ बजाए शाद-कामी शोर-ओ-शर पैदा हुआ

साथ बर-ख़ुरदार के रोता था उस का बाप भी

रो के कहता था कहाँ ओ बे-ख़बर पैदा हुआ

मैं मुख़ालिफ़ माँ मुख़ालिफ़ और हुकूमत भी ख़िलाफ़

दुश्मन-ए-मंसूबा-बंदी! तू मगर पैदा हुआ!

मैं तो पैदावार हूँ सस्ते ज़माने की मियाँ

तू बता इस दौर में क्या सोच कर पैदा हुआ

दौर-ए-जम्हूरी में बंगलादेश जाना था तुझे

अक्सरिय्यत छोड़ कर ज़ालिम इधर पैदा हुआ

माँ तिरी नर्गिस जिसे कहते हैं रोई भी नहीं

तू चमन में किस तरह ऐ दीदा-वर पैदा हुआ

तू मिरे हक़ में है ख़्वाजा-दिल-मोहम्मद का सवाल

हल न होगा उम्र भर गो मुख़्तसर पैदा हुआ

इस दफ़अ बच्चा समझ कर छोड़े देता हूँ तुझे

मार डालूँगा अगर बार-ए-दिगर पैदा हुआ

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