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लड़ी इस ठाट से मनकूहा-ए-काफ़िर-बयाँ मेरी - मोहम्मद ताहा खान कविता - Darsaal

लड़ी इस ठाट से मनकूहा-ए-काफ़िर-बयाँ मेरी

लड़ी इस ठाट से मनकूहा-ए-काफ़िर-बयाँ मेरी

फ़रिश्ते लिखते लिखते छोड़ भागे दास्ताँ मेरी

मोहल्ले-भर की दीवारों पे सर ही सर नज़र आए

मिरे बच्चों ने जिस दम लूट ली तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ मेरी

अजब कुछ लुत्फ़ रखता है जो कहते हैं मियाँ बीवी

कि शादी हो गई लेकिन कहाँ तेरी कहाँ मेरी

मुसलमाँ हूँ मगर ये सोच कर मरने से डरता हूँ

न जाने किस के घर जाए बला-ए-ना-गहाँ मेरी

वही है इख़्तिलाफ़-ए-बाहमी की अंजुमन अब तो

फ़क़त शादी के दिन उस ने मिलाई हाँ में हाँ मेरी

बहुत शाइस्ता-ए-अंदाज़-ए-गुफ़्तन है ज़बाँ उस की

नहीं मिन्नत-कश-ए-ताब-ए-शुनीदन दास्ताँ मेरी

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