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हुई है उम्र कि ख़ुर्शीद से नज़र न मिली - मोहम्मद सिद्दीक़ साइब टोंकी कविता - Darsaal

हुई है उम्र कि ख़ुर्शीद से नज़र न मिली

हुई है उम्र कि ख़ुर्शीद से नज़र न मिली

हमारे हिज्र की शब को कहीं सहर न मिली

मिली तो उन से मगर फ़ुर्सत-ए-नज़र न मिली

फिर उस के बा'द ख़ुद अपनी हमें ख़बर न मिली

तिरे करम से ज़माने में मुझ को क्या न मिला

नहीं मिली तो बस इक तेरी रहगुज़र न मिली

खुला ये राज़ कि ना-पाएदार है दुनिया

यहाँ किसी से कोई बात मो'तबर न मिली

असीर-ए-हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है अब तक

वो बद-नसीब जिसे ताब-ए-बाल-ओ-पर न मिली

ख़ुदा की ज़ात से कुछ मुन्हरिफ़ रहे वो लोग

कि जिन को चश्म मिली चश्म-ए-हक़-निगर न मिली

कहाँ कहाँ तिरे जल्वे न आश्कार हुए

कहाँ कहाँ तिरे जल्वों से ये नज़र न मिली

हर इक रात की होती तो है सहर लेकिन

हमारी रात को अर्सा हुआ सहर न मिली

ख़ुदा की शान है 'साइब' सब एक हैं लेकिन

किसी बशर से कहीं सूरत-ए-बशर न मिली

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