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सर्दी - मोहम्मद शरफ़ुद्दीन साहिल कविता - Darsaal

सर्दी

सर्दी बारिश के ब'अद आती है

इक शगूफ़ा नया खिलाती है

दिन सिकुड़ता है रात बढ़ती है

कोहरे की हुक्मरानी होती है

इस में शबनम टपकती है गुल पर

इस से होता है ख़ुश्क गुलशन-ए-तर

इस में आता है बर्ग-ए-गुल पे शबाब

इस में खिलते हैं हर तरह के गुलाब

ये दिखाती है जब असर अपना

सारा माहौल होता है ठंडा

जब हवा ख़ूब ठंडी चलती है

जान आफ़त में सब की आती है

बच्चे बूढ़े जवान मर्द ओ ज़न

सारे महसूस करते हैं उलझन

जिस्म जब उन का थराता है

दाँत अपने हर इक बजाता है

या तो कम्बल में रात काटते हैं

या रज़ाई में मुँह छुपाते हैं

शब को चूल्हा घरों में जलता है

दिन में सूरज से चैन मिलता है

शाल मुफ़लर से मिलती है राहत

कोट स्वेटर से बढ़ती है चाहत

जब हवा सर्द सर्द चलती है

सोच 'साहिल' की नज़्म बनती है

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