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बरसात - मोहम्मद शरफ़ुद्दीन साहिल कविता - Darsaal

बरसात

बादल गरज रहा है बिजली चमक रही है

पुर-कैफ़ हैं फ़ज़ाएँ हर शय दमक रही है

बाद-ए-ख़ुनुक चमन में बल खा के चल रही है

बर्ग-ए-हिना की रंगत पहलू बदल रही है

चेहरे पे यासियत के नूर-ए-शबाब छाया

मख़मल का सब्ज़ क़ालीं फ़ितरत ने यूँ बिछाया

मायूस हर शजर ने बदला लिबास अपना

हर मुर्ग़-ए-ख़ुश-नवा ने छेड़ा नया तराना

निकली सदा-ए-बुलबुल कोयल की कूक गूँजी

चिड़ियों की चहचहाहट लुत्फ़-ए-हयात लाई

तेज़ी में आ गई है दरियाओं की रवानी

मैदान खेत बस्ती हर सम्त पानी पानी

चश्मे उबल रहे हैं नहरें शबाब पर हैं

नग़्मात-ए-नौजवानी चंग-ओ-रुबाब पर हैं

फूलों से और फलों से शाख़-ए-शजर लदी है

उश्शाक़ के दिलों में उलझन सी पड़ गई है

सरसब्ज़ हो गया है वीरान सारा जंगल

जंगल में मच गया है हर-सू ख़ुशी का मंगल

ख़ुशबू-ए-जाँ-फ़ज़ा से हर जानवर मगन है

उन के रग-ए-अमल में वो जोश मौजज़न है

इनआम-ए-बे-बहा है क़ुदरत का ये नज़ारा

'साहिल' सुकून-ए-दिल है फ़ितरत का ये नज़ारा

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