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फ़व्वारा - मोहम्मद शफ़ीउद्दीन नय्यर कविता - Darsaal

फ़व्वारा

आओ चलें फ़व्वारा देखें

पानी का नज़्ज़ारा देखें

देख कर मंज़र प्यारा प्यारा

जी ख़ुश हो जाए हमारा

फ़व्वारा है हौज़ के अंदर

जैसे हो तालाब में मंदर

हौज़ के चारों जानिब गमले

ख़ूब हैं क़रीने से रक्खे

गमलों में पौदों के पत्ते

आँखों को हैं तरावत देते

फ़व्वारे का उबलना देखो

फिर पानी का उछलना देखो

यूँ उड़ते हैं पानी के क़तरे

जैसे कोई महताबी छूटे

पौदों पे क़तरों का बिखरना

पत्तों का धुल धुल के निखरना

काम ये कब हो और किसी से

बाग़ ने रौनक़ पाई इसी से

'नय्यर' देखने आओ तुम भी

आओ दिल बहलाओ तुम भी

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