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नज़्म - मोहम्मद सलीमुर्रहमान कविता - Darsaal

नज़्म

ख़ज़ानों को तुम ढूँडने पर मुसिर हो

टपकता है ख़ूँ नाख़ुनों से और आँखों से

खोई हुई नींद की तल्ख़ सुर्ख़ी

ये खेतों की जीती जड़ें काटते फावड़े और कुदालें

मैं ख़ुद मौत के हाथ जिस के तमस्ख़ुर

से तुम बे-ख़बर हो

हथेली पर उम्र और दिल की लकीरों में अटके

ये मद्धम से ज़र्रे कि जिन में अभी तक तुम्हारे

अब वज्द की मिट्टी

की इक झिलमिलाती किरन कितने ज़रख़ेज़ वा'दों

के दिन-रात तजती हुई इस घड़ी

क़ैद में है

तुम्हारी तरह वो ख़ज़ानों पे बैठे हुए साँप

ताज़ा लहू पी के फिर से किसी खोए नशे

की जन्नत में घुलने

ख़याली अज़ाबों में जलने की हैरत से गोया

सरापा ज़र-ओ-सीम की यख़ सलाख़ें और आँखें

बिलोर और हीरे

ख़ज़ाने तो सब ख़ाक में मिल चुके हैं

हवा और हवस के पुराने ठिकानों पे अब नौ-ब-नौ

फूल हसरत के देखो

ये मिट्टी कि चुप है बस उस के दफ़ीने

बरस के बरस चार दिन फूल पत्तों की लीला

ये मिट्टी तुम्हें ढूँडती है

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