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जिस की आँखों में कोई रंग-ए-शनासाई न था - मोहम्मद सज्जाद मिर्ज़ा कविता - Darsaal

जिस की आँखों में कोई रंग-ए-शनासाई न था

जिस की आँखों में कोई रंग-ए-शनासाई न था

उस से मिलने का मिरा दिल भी तमन्नाई न था

हम दयार-ए-ग़ैर में कहते रहे हैं दिल की बात

एक अपने शहर ही में इज़्न-ए-गोयाई न था

जज़्बा-ए-दिल के बहक जाने से रुस्वा हो गए

कूचा-ए-महबूब वर्ना कू-ए-रुसवाई न था

ज़ुल्मत-ए-शब को जहाँ नूर-ए-सहर कहते थे लोग

मेरा सच कहना सज़ावार-ए-पज़ीराई न था

दाद भी देता न था वो मेरे जज़्ब-ए-शौक़ की

ख़ामुशी आँखों में लब पर हर्फ़-ए-गोयाई न था

तेरी बे-मेहरी न थी कोताही-ए-क़िस्मत भी थी

कार-ज़ार-ए-दिल में वर्ना शौक़-ए-पस्पाई न था

मेरी अपनी ज़ात ही इक अंजुमन से कम न थी

इस लिए 'सज्जाद' मुझ को ख़ौफ़-ए-तन्हाई न था

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