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याद है आह का वो रंग-ए-नवा हो जाना - मोहम्मद सादिक़ ज़िया कविता - Darsaal

याद है आह का वो रंग-ए-नवा हो जाना

याद है आह का वो रंग-ए-नवा हो जाना

यूँ फ़ज़ाओं में सिमटना कि घटा हो जाना

इस क़दर कैफ़ कि मदहोश-ए-फ़ज़ा हो जाना

देखना साज़ को और नग़्मा-सरा हो जाना

हुस्न की फ़ितरत-ए-मा'सूम थी पाबंद-ए-हिजाब

इश्क़ से सीख लिया जल्वा-नुमा हो जाना

रस्म-ए-आदाब-ओ-मोहब्बत का वो पाबंद कहाँ

जिस की तक़दीर में हो नज़्र-ए-वफ़ा हो जाना

हुस्न इक इश्क़ की सोई हुई कैफ़िय्यत है

इश्क़ है हुस्न का बेदार-ए-वफ़ा हो जाना

नई ज़ंजीर है दुनिया का हर इक हंगामा

अस्ल में क़ैद है ज़िंदाँ से रिहा हो जाना

मस्त-ए-पिंदार सही साज़-ए-ख़ुदी क्यूँ छेड़ूँ

बे-ख़ुदी को मिरी आता है ख़ुदा हो जाना

याद है मुझ को वो गहवारा-ए-ज़ुल्मत की फ़ज़ा

इतना तारीकी में फिर ताकि 'ज़िया' हो जाना

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