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ख़याल नुत्क़ से बेगाना हो तो क्या कहिए - मोहम्मद सादिक़ ज़िया कविता - Darsaal

ख़याल नुत्क़ से बेगाना हो तो क्या कहिए

ख़याल नुत्क़ से बेगाना हो तो क्या कहिए

लब-ए-ख़मोश ही अफ़्साना हो तो क्या कहिए

मैं जानता हूँ कि तौहीन-ए-वज़्अ है मस्ती

यही शरीअ'त-ए-मय-ख़ाना हो तो क्या कहिए

जमाल-ए-दोस्त को दीवानगी से क्या मतलब

दिल अपने आप ही दीवाना हो तो क्या कहिए

हो कोई और तो उस से गिला मुनासिब है

मगर जो दोस्त है बेगाना हो तो क्या कहिए

बग़ैर साग़र-ए-मय भी है कैफ़ का इम्कान

तिरा ख़याल ही रिंदाना हो तो क्या कहिए

मैं चाहता हूँ कहूँ रंग-ए-इश्क़ की रूदाद

सुलूक हुस्न-ए-हरीफ़ाना हो तो क्या कहिए

अज़ीज़ दिल से ज़ियादा है मुझ को इस्मत-ए-राज़

हर इक तरफ़ यही अफ़्साना हो तो क्या कहिए

मज़ाक़-ए-बज़्म की इस्लाह मुम्किनात से है

फ़रोग़-ए-शम्अ' ही परवाना हो तो क्या कहिए

शबाब दावत-ए-रंगीनी-ए-नज़र है 'ज़िया'

मगर नज़र ही फ़क़ीहाना हो तो क्या कहिए

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