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हामिल-ए-अज़्मत-ए-फ़ितरत दिल-ए-इंसाँ निकला - मोहम्मद सादिक़ ज़िया कविता - Darsaal

हामिल-ए-अज़्मत-ए-फ़ितरत दिल-ए-इंसाँ निकला

हामिल-ए-अज़्मत-ए-फ़ितरत दिल-ए-इंसाँ निकला

हम जिसे फूल समझते थे गुलिस्ताँ निकला

रास आई न किसी को भी ये महफ़िल यारब

कि जो निकला तिरी दुनिया से परेशाँ निकला

ग़ुंचा-ओ-गुल को सिखा दूँगा मज़ाक़-ए-परवाज़

मैं जो गुलशन में किसी रोज़ पर-अफ़्शाँ निकला

मैं तो समझा था उसे बे-ख़बर-ओ-मुस्तग़नी

वो तो हर ज़र्रा-ए-आलम का निगहबाँ निकला

बे-जुनूँ आई थी क्या फ़स्ल-ए-बहारी इमसाल

आस्तीं चाक हुई और न गरेबाँ निकला

दिल जिसे मेहर-ए-जहाँ-ताब से इक निस्बत थी

एक बुझता सा चराग़-ए-तह-ए-दामाँ निकला

कभी तर-दामन-ए-आलाईश-ए-दुनिया न हुआ

ज़हे क़िस्मत कि मैं आसूदा-ए-तूफ़ाँ निकला

जिसे इशरत-कदा-ए-दहर समझता था मैं

आख़िर-ए-कार वो इक ख़्वाब-ए-परेशाँ निकला

गुफ़्तुगू ग़ुंचा-ए-लब-बस्ता ने की मुझ से 'ज़िया'

बहर-ए-गुल-गश्त जो मैं सर-ब-गरेबाँ निकला

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