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निगाह-ए-लुत्फ़ से तेरी कहीं जो हम मिलते - मोहम्मद नक़ी रिज़वी असर कविता - Darsaal

निगाह-ए-लुत्फ़ से तेरी कहीं जो हम मिलते

निगाह-ए-लुत्फ़ से तेरी कहीं जो हम मिलते

हमारी ज़ीस्त के शाम-ओ-सहर बहम मिलते

हमें फ़रेब-ए-ख़िरद ने डुबो दिया वर्ना

हमारे जाम से ख़ुद आ के जाम-ए-जम मिलते

किसी के दर्द पे हँसना किसी के ग़म में ख़ुशी

ये लम्हे काश ज़माने को कम से कम मिलते

न होते हम तो ज़माने की आगही की क़सम

न लौह मिलती न तुम को कहीं क़लम मिलते

सर-ए-नियाज़ की अज़्मत के राज़ जब खुलते

दर-ए-बुताँ से निशान-ए-दर-ए-हरम मिलते

तमाम-उम्र गँवा दी तलाश में लेकिन

ख़ुदा न मिलता न मिलता कहीं सनम मिलते

कलाम-ए-'असर' की अर्ज़िश नहीं ज़माने में

कहीं जो होती तो हल्के से कुछ वरम मिलते

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