ख़ुदाया काश तुझी को गवाह कर लेते
ख़ुदाया काश तुझी को गवाह कर लेते
निगाह-ए-ख़ल्क़ से बच कर गुनाह कर लेते
हयात ख़ुद ही मिरे दर्द की पासबाँ होती
उरूस-ए-मर्ग से इक दिन जो चाह कर लेते
फ़लक न रहता न रू-ए-ज़मीं की रंगीनी
तुम्हारे जौर-ओ-सितम पर जो आह कर लेते
न करते जब्र किसी पर भी लोग फिर शायद
जो इख़्तियार पे अपने निगाह कर लेते
गदागरी के तो इल्ज़ाम से बचे रहते
हम अपने सर पे अगर कज-कुलाह कर लेते
हमारी फ़िक्र का थोड़ा सा तो सिला मिलता
जो अहल-ए-बज़्म ही कुछ वाह वाह कर लेते
निबाह लेते ज़माने से हम भी मर-खप कर
जो आप 'असर' के दिल में न राह कर लेते
(546) Peoples Rate This