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ख़ुदाया काश तुझी को गवाह कर लेते - मोहम्मद नक़ी रिज़वी असर कविता - Darsaal

ख़ुदाया काश तुझी को गवाह कर लेते

ख़ुदाया काश तुझी को गवाह कर लेते

निगाह-ए-ख़ल्क़ से बच कर गुनाह कर लेते

हयात ख़ुद ही मिरे दर्द की पासबाँ होती

उरूस-ए-मर्ग से इक दिन जो चाह कर लेते

फ़लक न रहता न रू-ए-ज़मीं की रंगीनी

तुम्हारे जौर-ओ-सितम पर जो आह कर लेते

न करते जब्र किसी पर भी लोग फिर शायद

जो इख़्तियार पे अपने निगाह कर लेते

गदागरी के तो इल्ज़ाम से बचे रहते

हम अपने सर पे अगर कज-कुलाह कर लेते

हमारी फ़िक्र का थोड़ा सा तो सिला मिलता

जो अहल-ए-बज़्म ही कुछ वाह वाह कर लेते

निबाह लेते ज़माने से हम भी मर-खप कर

जो आप 'असर' के दिल में न राह कर लेते

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