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हुस्न और इश्क़ को फ़र्क़-ए-नज़री क्यूँ कहिए - मोहम्मद नक़ी रिज़वी असर कविता - Darsaal

हुस्न और इश्क़ को फ़र्क़-ए-नज़री क्यूँ कहिए

हुस्न और इश्क़ को फ़र्क़-ए-नज़री क्यूँ कहिए

मय की तासीर को इक बे-ख़बरी क्यूँ कहिए

हर-नफ़स ज़ीस्त का हो जाए अगर वक़्फ़-ए-तलाश

जुस्तुजू कहिए उसे दर-बदरी क्यूँ कहिए

कोह-ओ-सहरा ही नहीं अर्श की लाता हूँ ख़बर

मेरी पर्वाज़ को बे-बाल-ओ-परी क्यूँ कहिए

कश्तियाँ डूब के उभरें जो किसी तूफ़ाँ में

ना-ख़ुदाओं की उसे दीदा-वरी क्यूँ कहिए

बुझते बुझते भी अँधेरों की रहे जो दुश्मन

ऐसी हस्ती को चराग़-ए-सहरी क्यूँ कहिए

जब सुलझती न हो कोशिश से भी उलझी हुई बात

फिर तो हालात को आफ़त से बरी क्यूँ कहिए

एक कोशिश थी जो नाकाम रही क़िस्मत से

'अस्र' कुछ कहिए उसे बे-हुनरी क्यूँ कहिए

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