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गो ज़बानें लाख हों दिल की सदा तो एक है - मोहम्मद नक़ी रिज़वी असर कविता - Darsaal

गो ज़बानें लाख हों दिल की सदा तो एक है

गो ज़बानें लाख हों दिल की सदा तो एक है

जितने हों अंदाज़ लेकिन मुद्दआ' तो एक है

कुछ महाज़ों पर बहाएँ कुछ बहाएँ खेत में

मुख़्तलिफ़ जा पर सही ख़ून-ए-वफ़ा तो एक है

हर तरफ़ से इम्तिहाँ-गाह-ए-वफ़ा में जाऊँगा

क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन का मरहला तो एक है

दार हो मक़्तल हो या हो तूर का जल्वा कहीं

जज़्बा-ए-ज़ौक़-ए-मोहब्बत का सिला तो एक है

मैं समझता हूँ ये दुनिया है हसीनों से भरी

क्या करूँ ज़ौक़-ए-नज़र का मुद्दआ' तो एक है

आह नाले दर्द-ओ-ग़म अख़्तर-शुमारी रात की

ऐ मसीह-ए-वक़्त इन सब की दवा तो एक है

दूर हों चारा-गरान-ए-वक़्त बस अब दूर हों

'अस्र' की तकलीफ़ का दर्द-आश्ना तो एक है

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