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बे-ख़ुदी में जब तिरी महफ़िल में दीवाने गए - मोहम्मद नक़ी रिज़वी असर कविता - Darsaal

बे-ख़ुदी में जब तिरी महफ़िल में दीवाने गए

बे-ख़ुदी में जब तिरी महफ़िल में दीवाने गए

अहल-ए-दिल अहल-ए-हवस के फ़र्क़ पहचाने गए

कैसे कैसे हाल में देखा जनाब-ए-शैख़ को

महफ़िल-ए-रिंदाँ में जब भी वा'ज़ फ़रमाने गए

मय-कश-ए-आवारा इस दुनिया से क्या उठ कर गया

मय गई जाम-ओ-सुबू साक़ी-ओ-मय-ख़ाने गए

ऐ हसीनान-ए-जहाँ अहल-ए-हवस से होशियार

वर्ना हुस्न-ओ-इश्क़ से मरबूत अफ़्साने गए

फ़ैसला-कुन किस क़दर थी हाए ज़ालिम की अदा

दिल-जिगर क़ल्ब-ओ-नज़र के सारे अफ़्साने गए

अपने अपने बस की बातें अहल-ए-महफ़िल जान लें

शम-ए-महफ़िल के क़रीं फिर लीजे परवाने गए

ज़िंदगी-भर 'अस्र' गो रिंदों के हम-मशरब रहे

फिर भी दीवानों में फ़रज़ाने से गर्दाने गए

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