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यूँ तो यूसुफ़ से हसीं और जवाँ थे पहले - मोहम्मद मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा कविता - Darsaal

यूँ तो यूसुफ़ से हसीं और जवाँ थे पहले

यूँ तो यूसुफ़ से हसीं और जवाँ थे पहले

आप से लोग ज़माने में कहाँ थे पहले

रोज़-ए-अव्वल से हैं हम सोख़्ता-दिल कुश्ता-ए-ग़म

आज जैसे हैं यूँही शो'ला-ब-जाँ थे पहले

इश्क़ ने खोल दिए हम पे वो असरार-ए-हयात

जो ज़माने की निगाहों से निहाँ थे पहले

आख़िर आना ही पड़ा लौट के तेरी जानिब

क़ाफ़िले दिल के ब-हर-सम्त-ए-रवाँ थे पहले

उन बहारों को अजब रंग में पाया हम ने

जिन से वाबस्ता हसीं वहम-ओ-गुमाँ थे पहले

वो सियह-बख़्त यहाँ महव-ए-फ़ुग़ाँ आज भी हैं

जो सियह-बख़्त यहाँ महव-ए-फ़ुग़ाँ थे पहले

मरहले इश्क़ के आसान समझ बैठे थे

'मंशा' हम लोग भी क्या सादा-गुमाँ थे पहले

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