सूरत-ए-बर्क़-ए-तपाँ शो'ला-फ़गन उठ्ठे हैं
सूरत-ए-बर्क़-ए-तपाँ शो'ला-फ़गन उठ्ठे हैं
अज़्म-ए-नौ ले के जवानान-ए-वतन उठ्ठे हैं
हिफ़्ज़-ए-नामूस-ए-मोहब्बत के लिए दीवाने
अपने दिल में लिए मरने की लगन उठ्ठे हैं
रुख़ ज़माने की हवाओं का बदलने वाले
आज डाले हुए माथे पे शिकन उठ्ठे हैं
पैकर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा हम हैं मगर मजबूरन
हाथ में तेग़ लिए ग़लग़ला-ज़न उठ्ठे हैं
आँच नामूस-ए-वतन पर नहीं आने देंगे
अब तो हम बाँधे हुए सर से कफ़न उठ्ठे हैं
चंद लम्हात के मेहमान नज़र आते हैं
वो बगूले जो सर-ए-सेहन-ए-चमन उठ्ठे हैं
अब अंधेरों से कहो ख़ैर मनाएँ अपनी
ज़र्रे धरती के मिरी बन के किरन उठ्ठे हैं
जब भी आया है कड़ा वक़्त चमन पर 'मंशा'
ले के हम हौसला-ए-फ़ित्ना-शिकन उठ्ठे हैं
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