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मोहब्बत का क़रीना आ गया है - मोहम्मद मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा कविता - Darsaal

मोहब्बत का क़रीना आ गया है

मोहब्बत का क़रीना आ गया है

हमें मर मर के जीना आ गया है

ब-फ़ैज़-ए-ग़म हम अहल-ए-दिल के हाथों

दो-आलम का ख़ज़ीना आ गया है

तिरी शादाबियों का ज़िक्र सुन कर

गुलों को भी पसीना आ गया है

भड़क उठती है जिस में आग दिल की

वो सावन का महीना आ गया है

मुसाफ़िर अब कहीं तो जा लगेंगे

तलातुम में सफ़ीना आ गया है

समझे बैठे हैं ख़ुद को रिंद-ए-कामिल

जिन्हें दो घूँट पीना आ गया है

जुनूँ अब तक था 'मंशा' चाक-दामाँ

अब उस को चाक सीना आ गया है

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