मोहब्बत का क़रीना आ गया है
मोहब्बत का क़रीना आ गया है
हमें मर मर के जीना आ गया है
ब-फ़ैज़-ए-ग़म हम अहल-ए-दिल के हाथों
दो-आलम का ख़ज़ीना आ गया है
तिरी शादाबियों का ज़िक्र सुन कर
गुलों को भी पसीना आ गया है
भड़क उठती है जिस में आग दिल की
वो सावन का महीना आ गया है
मुसाफ़िर अब कहीं तो जा लगेंगे
तलातुम में सफ़ीना आ गया है
समझे बैठे हैं ख़ुद को रिंद-ए-कामिल
जिन्हें दो घूँट पीना आ गया है
जुनूँ अब तक था 'मंशा' चाक-दामाँ
अब उस को चाक सीना आ गया है
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