जिगर को चाक कि दिल को लहू लहू कीजे
जिगर को चाक कि दिल को लहू लहू कीजे
हयात को किसी उन्वान सुर्ख़-रू कीजे
नहीं है हौसला मर मर के ज़िंदा रहने का
तो कौन कहता है जीने की आरज़ू कीजे
है चाक चाक बहुत ज़िंदगी का पैराहन
ख़ुदा के वास्ते कुछ कोशिश-ए-रफ़ू कीजे
लहू से पहले गुलिस्ताँ को कीजिए सैराब
फिर उस के बा'द तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू कीजे
तुम्हारी बज़्म में आई कहाँ से ये रौनक़
नज़र मिला के ज़रा हम से गुफ़्तुगू कीजे
ब-फ़ैज़-ए-इश्क़ तक़द्दुस-मआब हैं हम लोग
हमारा ज़िक्र भी कीजे तो बा-वज़ू कीजे
क़लम उठे तो रहे अज़्मत-ए-क़लम का ख़याल
ऐ 'मंशा' यूँही सदा हिफ़्ज़-ए-आबरू कीजे
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