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हम शेर सुनाते हैं मफ़्हूम तुम्हारा है - मोहम्मद ख़ालिद कविता - Darsaal

हम शेर सुनाते हैं मफ़्हूम तुम्हारा है

हम शेर सुनाते हैं मफ़्हूम तुम्हारा है

गुम-कर्दा-ए-मंज़िल हैं मालूम तुम्हारा है

औराक़-ए-परेशाँ हैं नक़्क़ाश किसे जानें

बस हर्फ़ हमारे हैं मर्क़ूम तुम्हारा है

ये नग़्मा-ए-हस्ती भी मंसूब तुम्हीं से है

आहंग तुम्हारा है मंज़ूम तुम्हारा है

जो इश्क़ समझ बैठे कब उन को ख़बर होगी

हर रंग में इक जल्वा-ए-मासूम तुम्हारा है

झोली में फ़क़ीरों की बख़्शी हुई दौलत है

दिल का जो सितारा है मक़्सूम तुम्हारा है

ये क़िस्सा-ए-जाँ यूँ ही मशहूर नहीं होता

लाज़िम तो हमारा था मलज़ूम तुम्हारा है

क्यूँ शहर की गलियों में अज़़कार ये रहता है

मरहूम तुम्हारा था मरहूम तुम्हारा है

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