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इक रब्त था ब-रंग-ए-दिगर भी नहीं रहा - मोहम्मद ख़ालिद कविता - Darsaal

इक रब्त था ब-रंग-ए-दिगर भी नहीं रहा

इक रब्त था ब-रंग-ए-दिगर भी नहीं रहा

दीवार क्या गिरी कोई दर भी नहीं रहा

अब तक है तू भी और तिरी हैबत भी बे-मिसाल

दिल वो नहीं है दिल में वो डर भी नहीं रहा

क्या हो अगर लबों पे अभी तक है कोई प्यास

सहरा में जब सराब-ए-नज़र भी नहीं रहा

उस ज़ाइक़े से अपनी शनासाई क्या हुई

गो शाख़ वो नहीं वो समर भी नहीं रहा

अब तक कोई क़याम की साअत नज़र न आई

दरपेश अगरचे कोई सफ़र भी नहीं रहा

छूटे हैं ऐसे बार-ए-सफ़र से तमाम लोग

जैसे किसी के दोश पे सर भी नहीं रहा

मर से गए हैं संग-ए-मलामत के वलवले

सर में जुनून-ए-अर्ज़-ए-हुनर भी नहीं रहा

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