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रब नवाज़ माइल - मोहम्मद इज़हारुल हक़ कविता - Darsaal

रब नवाज़ माइल

किस लिए उस शय का अब मातम करूँ

किस लिए उस शय का अब मातम करूँ

रोज़-ओ-शब का हुस्न जिन लोगों से था वो और था

उन के इक इक रंग रोज़-ओ-शब का था

क्या अजब आग़ाज़-ए-हस्ती, क्या अजब आग़ाज़-ए-कार

जैसे वो ईसार-पेशा मर्द दाना-ओ-ग़मीं

जिन के दिल में दर्द रहते थे मकीं

इक दिया तन्हा किसी का क्यूँ जले

ऐसे ही बस ख़्वाब थे

ज़िंदगी को जानते थे इस तरह

तुम से हो मुझ से हो और उन सब से हो

किस लिए उस शय का अब मातम करूँ

आइना-बर-कफ़ इधर अपने ही हैं

ये मिरे वक़्तों के लोग और आप मैं

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