नजात के लिए रोज़-ए-सियाह माँगती है
नजात के लिए रोज़-ए-सियाह माँगती है
ज़मीन अहल-ए-ज़मीं से पनाह माँगती है
भरा न अतलस-ओ-मरमर से पेट ख़िल्क़त का
ये बद-निहाद अब आब-ओ-गियाह माँगती है
रियाज़तों से फ़रिश्ता-सिफ़त तो हो न सकी
मोहब्बत आई है ताब-ए-गुनाह माँगती है
वो रंग-ए-कूचा-ओ-बाज़ार है कि अब बस्ती
घरों से दूर अलग क़त्ल-गाह माँगती है
रगों में दौड़ता फिरता है इज्ज़ सदियों का
रईयत आज भी इक बादशाह माँगती है
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