ख़िज़ाँ तुझ पर ये कैसा बर्ग-ओ-बार आने लगा है
ख़िज़ाँ तुझ पर ये कैसा बर्ग-ओ-बार आने लगा है
मुझे अब मौसमों पर ए'तिबार आने लगा है
कहाँ दोपहर की हिद्दत कहाँ ठंडक शफ़क़ की
सियह रेशम में चाँदी का ग़ुबार आने लगा है
खुलेंगे वस्ल के दर दूसरी दुनियाओं में भी
बिल-आख़िर हिज्र के रुख़ पर निखार आने लगा है
मिरे अस्बाब में मश्कीज़ा-ओ-ख़ुरजीन रखना
सफ़र की शाम है और रेगज़ार आने लगा है
फ़लक को बार बार अहल-ए-ज़मीं यूँ देखते हैं
कि जैसे ग़ैब से कोई सवार आने लगा है
(670) Peoples Rate This