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इक खुला मैदाँ तमाशा-गाह के उस पार है - मोहम्मद इज़हारुल हक़ कविता - Darsaal

इक खुला मैदाँ तमाशा-गाह के उस पार है

इक खुला मैदाँ तमाशा-गाह के उस पार है

जिस में हर रक़्क़ास का इक आइना तय्यार है

रेत के ज़रिए हमारी मंज़िलें और उन की हम

पस यहाँ सम्त-ए-सफ़र का जानना बे-कार है

रात और तूफ़ान-ए-अब्र-ओ-बाद मेरे हर तरफ़

दूर लौ देती हुई इक मिशअल-ए-रुख़्सार है

फिर कभी उट्ठे तो मिल लेंगे न इतने दुख उठा

मौत से होता हुआ इक रास्ता हमवार है

इस तरह बाब-ए-नसीहत खोल कर बैठे हैं लोग

जैसे ख़ैर ओ शर का दुनिया में कोई मेआर है

लहर वो आई कि हम हैं और नशेब-ए-गुमरही

ग़म के आगे बंद अब के बाँधना दुश्वार है

सिलसिला आवाज़ का देखो कि ख़ोशे सरसराए

फिर खनक है धात की फिर साँप की फुन्कार है

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