सुहाना ख़्वाब

जैसे सराबों का पीछा करते करते लक़-ओ-दक़ सहरा में

अचानक नख़लिस्तान मिल जाता है

जैसे कूड़े कर्कट के ढेर में

ख़ूबसूरत फूल खिल जाते हैं

जैसे टुंडमुंड दरख़्तों पर

नई कोंपलें फूट निकलती हैं

जैसे चार सू छाई हुई ख़ामोशी में

दीवानी कोयल कूक उठती है

जैसे मायूसियों और तन्हाइयों में

महबूब की भूली बिसरी याद आ जाती है

जैसे काले बादलों के पीछे से

चमकता चाँद निकल आता है

जैसे हिज्र की लम्बी रात के बा'द

सुब्ह-ए-विसाल तुलूअ' हो जाती है

वैसे ही ज़िंदगी का बोझ सहते सहते

मौत एक सुहाना ख़्वाब बन जाती है

और ख़ुदा की ने'मतों में से

एक नेमत

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