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अहद जैसे भी बंधे थे तेरे मेरे दरमियाँ - मोहम्मद फ़ख़रुल हक़ नूरी कविता - Darsaal

अहद जैसे भी बंधे थे तेरे मेरे दरमियाँ

अहद जैसे भी बंधे थे तेरे मेरे दरमियाँ

दर्द के रिश्ते जुड़े थे तेरे मेरे दरमियाँ

ग़ैर-मुमकिन था फ़सीलें फ़ासलों की फाँदना

क़िस्मतों के फ़ैसले थे तेरे मेरे दरमियाँ

इक तकल्लुम का तअल्लुक़ तोड़ने से क्या हुआ

और भी कुछ राब्ते थे तेरे मेरे दरमियाँ

क्या कहूँ मंज़िल की उस की सम्त भी कोई न थी

रास्ते ही रास्ते थे तेरे मेरे दरमियाँ

तेरे दिल का मान टूटे मैं ने कब चाहा मगर

और भी कुछ दिल पड़े थे तेरे मेरे दरमियाँ

वस्ल की सरशारियों से जो न हो सकते थे हल

ऐसे भी कुछ मसअले थे तेरे मिरे दरमियाँ

सामना था इक तो दरिया-ए-तलातुम-ख़ेज़ का

और कुछ कच्चे घड़े थे तेरे मेरे दरमियाँ

था सफ़र दरपेश जाने कितने 'नूरी' साल का

कैसे कैसे फ़ासले थे तेरे मेरे दरमियाँ

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