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बज़्म से अपनी जो इस तरह उठा देते हैं - मोहम्मद फ़ैज़ुल्लाह फ़ैज़ कविता - Darsaal

बज़्म से अपनी जो इस तरह उठा देते हैं

बज़्म से अपनी जो इस तरह उठा देते हैं

जाने किस जुर्म की ये लोग सज़ा देते हैं

मैं ने सोचा था तिरा ग़म ही मुझे काफ़ी है

लोग आते हैं मुझे आ के हँसा देते हैं

ग़ैर तो ग़ैर हैं अपनों की ये हालत देखी

जिन पे तकिया किया वो लोग दग़ा देते हैं

ग़म से घबरा के कभी लब पे जो आती है हँसी

वो तसव्वुर में मुझे आ के रुला देते हैं

अहल-ए-दिल को तो यही कहते सुना है ऐ 'फ़ैज़'

अपने बीमार को दामन की हवा देते हैं

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