ग़ैर के ख़त में मुझे उन के पयाम आते हैं
ग़ैर के ख़त में मुझे उन के पयाम आते हैं
कोई माने या न माने मिरे नाम आते हैं
आफ़ियत-कोश मुसाफ़िर जिन्हें मंज़िल समझें
इश्क़ की राह में ऐसे भी मक़ाम आते हैं
अब मिरे इश्क़ पे तोहमत है हवस-कारी की
मुस्कुराते हुए अब वो लब-ए-बाम आते हैं
अब नए रंग के सय्याद हैं इस गुलशन में
सैद के साथ जो बढ़ के तह-ए-बाम आते हैं
दावर-ए-हश्र मिरा नामा-ए-आमाल न देख
इस में कुछ पर्दा-नशीनों के भी नाम आते हैं
जिन को ख़ल्वत में भी 'तासीर' न देखा था कभी
महफ़िल-ए-ग़ैर में अब वो सर-ए-आम आते हैं
(1412) Peoples Rate This