शाख़-ए-गुलशन पे था जो ठिकाना गया
शाख़-ए-गुलशन पे था जो ठिकाना गया
उस परिंदे का तो आब-ओ-दाना गया
आँधियों की है ज़द पर घरौंदे यहाँ
यानी हमदर्दियों का ज़माना गया
ज़र्द मौसम की आमद ने बदला समाँ
सब्ज़-ए-गुलसिताँ का ज़माना गया
मेरी हसरत ने ओढ़ी जो लफ़्ज़ी क़बा
मेरे ख़ामोश लब का तराना गया
शम-ए-बज़्म-ए-तरब रात तन्हा रही
कोई परवाना आख़िर क्यूँ आ न गया
यूँ हुई शाख़ से हिजरत-ए-ताइराँ
मर्सिया रह गया चहचहाना गया
यूँ न कमज़ोर रिश्ते की बुनियाद थी
आते जाते यूँ ही आना जाना गया
(533) Peoples Rate This