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क़ातिल है जो मेरा वही अपना सा लगे है - मोहम्मद अज़हर शम्स कविता - Darsaal

क़ातिल है जो मेरा वही अपना सा लगे है

क़ातिल है जो मेरा वही अपना सा लगे है

दुनिया से जुदा हो के वो दुनिया सा लगे है

हर शाम मिरे दिल में है यादों से चराग़ाँ

हर शाम मिरी पलकों पे मेला सा लगे है

किस हाल पे छोड़े है मुझे गर्दिश-ए-अय्याम

सब्ज़ा भी जहाँ देखे हूँ सहरा सा लगे है

बातिल के जलाए हुए दीपक का है चर्चा

जो सच का है सूरज वो तमाशा सा लगे है

सावन की बहारों सा वही हुस्न का पैकर

कहने को है बेगाना पर अपना सा लगे है

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