क़ातिल है जो मेरा वही अपना सा लगे है
क़ातिल है जो मेरा वही अपना सा लगे है
दुनिया से जुदा हो के वो दुनिया सा लगे है
हर शाम मिरे दिल में है यादों से चराग़ाँ
हर शाम मिरी पलकों पे मेला सा लगे है
किस हाल पे छोड़े है मुझे गर्दिश-ए-अय्याम
सब्ज़ा भी जहाँ देखे हूँ सहरा सा लगे है
बातिल के जलाए हुए दीपक का है चर्चा
जो सच का है सूरज वो तमाशा सा लगे है
सावन की बहारों सा वही हुस्न का पैकर
कहने को है बेगाना पर अपना सा लगे है
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