मिर्ज़ा-'ग़ालिब' और आम
मिर्ज़ा-'ग़ालिब' उर्दू के शायर
आमों के भी रसिया थे
इक दिन
इक साहिब के साथ
जिन्हें आमों से
उतनी ही चिढ़ थी
बैठे गुफ़्तुगू फ़रमा रहे थे
'ग़ालिब'
आमों की ख़ूबियाँ और
वो ख़ामियाँ गँवा रहे थे
तभी सड़क से
गुज़रते हुए
चंद गधों ने
वहाँ पड़े हुए
आम के छिलकों को सूँघा
और ये देख कर
कि आम हैं (कुछ ख़ास नहीं)
आगे निकल गए
वो साहिब
उछल कर बोले
देखा 'ग़ालिब'
पता नहीं तुम्हें आम हैं
क्यूँ इतने भाते
अरे
आम तो गधे तक नहीं खाते
मिर्ज़ा-'ग़ालिब' ने
सर हिला कर फ़रमाया
हाँ हुज़ूर
आप सच ही हैं फ़रमाते
बे-शक
गधे आम नहीं खाते
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