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ज्योतिषी दिन महीनों का क़िस्सा सुनो - मोहम्मद अनवर ख़ालिद कविता - Darsaal

ज्योतिषी दिन महीनों का क़िस्सा सुनो

ज्योतिषी दिन महीनों का क़िस्सा सुनो

जब घरों से निकलती हुई लड़कियाँ अपने घर जाएँगी

अपने रस्ते की हो जाएँगी

और तहमीना-ए-बेख़बर हर गली की ख़बर

हर गली इक नए घर पे जा कर उचट जाएगी

ऐ मेरी रूह के बादबाँ

दुख खुले पानियों का सफ़र उम्र-भर

ज्योत्सषी दिन महीनों का क़िस्सा सुनो

ज्योतिषी रोज़ हर रोज़ सूरज खुले पानियों से निकाला गया

रोज़ सूरज खुले पानियों में उतारा गया

ज्योतिषी दिन महीनों की वहशत से आगाह मैं

ज्योतिषी इस अज़िय्यत से आगाह मैं

ज्योतिषी मेरे होने का क़िस्सा सुनो

ज्योतिषी साँप आँखों ने देखा तो मैं सौ गया

मोर पाँव ने देखा तो मैं सौ गया

ज्योतिषी मेरे सोने का क़िस्सा सुनो

ज्योतिषी मेरी आँखों में तहमीना-ए-बे-ख़बर के लिए अन-गिनत ख़्वाब हैं

ख़्वाब वहशत के आदाब हैं

सुब्ह सूरज का फ़रमान है

और सूरज खुले पानियों में उतारा गया

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