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हुजूम - मोहम्मद अनवर ख़ालिद कविता - Darsaal

हुजूम

ये हुजूम-सूरत आसमान-ए-सियाह मेरे अक़ब में है

मैं बड़े बुलंद शजर का फल बड़े फ़ासले का शिकार

ग़मज़ा-ए-राज़-दार

कहा गया कि ज़मीन इक कफ़ जो पहाड़ मौज-ए-नसीम गेसू-ए-ख़लवती

सो ज़मीन साया-ए-तीरगी की मिसाल मेरे अक़ब में है

मुझे नींद से जो उठा के जुरआ-ए-आब दे

जो पस-ए-ग़ुबार चहार-सम्त से आ के मेरा हलाक हो

जो दम शगुफ़्त-ए-गुल-शफ़क़ मेरी कुहनियों से क़रीब हो

वो हुजूम-ए-ख़लवतियान-ए-ख़ास मेरे अक़ब में है

मैं समाअ'तों का शिकार था

तू समाअ'तों का सहाब सूरत-ए-आब मेरे अक़ब में है

कोई रास्ते में नहीं मिला

कोई बर्ग-ओ-बार-ओ-गुल-ओ-शजर

कोई नान-ओ-लहम-ए-गज़शतगां

कोई आँख नींद ख़याल ख़्वाब अब्र शिताब नहीं मिला

कोई ख़्वाब-ज़ादा नहीं मिला

सर-ए-ख़ुद-नेहादा नहीं मिला

सर-ए-ख़ुद-नेहादा ब-कफ़ ये में कि ज़मीन इक कफ़-ए-जू

पहाड़ मौज-ए-नसीम गेसु-ए-ख़लवती

सर-ए-ख़ुद-नेहादा ब-कफ़ ये मैं कि हुजूम-ए-मार-ए-सियाह मेरे अक़ब में है

मैं बड़े बुलंद शजर का फल

बड़े फ़ासले का शिकार ग़मज़ा-ए-राज़-दार

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